विष्णु नागर के दो व्यंग्य

Article : उन्होंने सही कहा कि 2014 से पहले इस देश में कुछ नहीं था। न‌ सड़कें थीं, न पुल थे। न बिजली थी, न पानी था। न कारखाने थे, न फैक्ट्रियां थीं। न बसें थीं, न ट्रेनें थीं। ‌न बिल्डिगें थीं, न घर थे।

विष्णु नागर के दो व्यंग्य

1. भये प्रकट कृपाला दीन दयाला, अडानी हितकारी!

Article : उन्होंने सही कहा कि 2014 से पहले इस देश में कुछ नहीं था। न‌ सड़कें थीं, न पुल थे। न बिजली थी, न पानी था। न कारखाने थे, न फैक्ट्रियां थीं। न बसें थीं, न ट्रेनें थीं। ‌न बिल्डिगें थीं, न घर थे। न आईआईटी थे, न आईआईएम थे। न एम्स था।न डाक्टर थे, न इंजीनियर थे। न ज्ञान था, न विज्ञान था।

हवाई जहाज का तो लोगों ने नाम तक नहीं सुना था। लोग नंगे रहते थे या जिन्हें ज्यादा ही शर्म आती थी, शरीर पर पत्ते लपेट लेते थे, क्योंकि तब तक कपड़े क्या होते हैं, यह नान बायोलॉजिकल प्रभु के अलावा भारत में कोई जानता नहीं था। स्कूल, कालेज और अस्पताल  कल्पना से कोसों दूर थे। केवल एक महामानव ने अपवादस्वरूप न जाने कैसे 'एंटायर पोलिटिकल साइंस' में डिग्री ले रखी थी, जो संसार में आज तक किसी के पास नहीं है।

तब तो यहां चांद, सूरज और तारे तक नहीं थे। चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था। उसी अंधकार में बुद्ध हुए, गांधी हुए, नेहरू हुए, भगत सिंह, अशफाकउल्लाह हुए, लक्ष्मी बाई हुईं। कबीर हुए, नानक हुए। रवीन्द्र नाथ टैगोर और निराला हुए। ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब अंबेडकर हुए। उसी में 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया। उसी में गांधीजी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ी गई। उसी अंधकार में देश ने आजादी पाई, मगर अंधेरा नहीं हटा। इतना अधिक अंधकार था कि बेचारे एलएलएम गांधी को दुनिया में कोई जानता तक नहीं था। भला हो एक विदेशी रिचर्ड एटनबरो का कि उसने 'गांधी ' नामक फिल्म बनाई और दुनिया गांधी को जानने लगी। मगर नान बायोलॉजिकल जी को तब भी दुनिया उनके डंके समेत जानती थी। उन्हें किसी एटनबरो की जरूरत नहीं थी। उन्होंने 2002 में गुजरात नरसंहार की फिल्म खुद बनाई थी। उसके निर्माता, निर्देशक, हीरो वह स्वयं थे। फिल्म काफी हिट रही, जिसे पूरी दुनिया ने देखा और क्या यह कहना चाहिए कि उसे बहुत सराहा था!

फिर मई 2014 में नान बायोलॉजिकल का उसी गुजरात माडल के साथ प्रकटीकरण अखिल भारतीय पटल पर हुआ। भक्तों ने 'भये प्रकट कृपाला दीन दयाला, अडानी हितकारी' गाकर उनकी अभ्यर्थना की। उन्हें साष्टांग दंडवत किया।उनकी चरण रज ली। उनके चरणामृत का पान किया। उसके बाद भारत में सब होना शुरू हुआ। सूरज प्रकट  हुआ, तो शरमाशरमी में चांद और तारे भी प्रकट हो गए!

फिर जो होना था, वह हुआ और जो तो नहीं होना था, वह अधिक से अधिक हुआ। सत्तर साल में जो नहीं हुआ, उस नाम पर हुआ। सड़कें बनीं, मगर बरसात में गड्ढे पड़ जाने के हित बनीं! पुल बने, एक-दूसरे से गिरने की प्रतियोगिता करने के लिए बने। बरसात में गंदा पानी और कीचड़ भगवान को समर्पित हो सके, इसलिए जो कल तक मंदिर थे, मंदिर कारिडोर बने। गंगा और यमुना नामक नदियां बनीं, ताकि वे कारखानों का जहरीला रसायन,घरों से निकली गंदगी को नालों के माध्यम से ग्रहण करके 'निर्मल ' हो सकें। भक्तों को खुजली आदि की बीमारियां आसानी से, निर्भय होकर प्रेम और श्रद्धापूर्वक दे सकें। इससे प्रसन्न होकर मोदी जी को गोद ले सकें। पांच सितारा अस्पताल बने, ताकि अमीरों का महंगे से महंगा इलाज सुलभ हो सके।

मर जाने पर भी मरीज का वहां इलाज जारी रह सके, तगड़े से तगड़ा बिल बन सके। सरकारी अस्पताल बने, ताकि इलाज का, डाक्टर का, दवाइयों और परीक्षणों का इंतजार करते-करते गरीब मरीज आराम से, बिन आवाज़ किए अस्पताल के बाहर, सड़क पर दम तोड़ सकें। एक से एक आला, एयरकंडीशंड स्कूल बने, ताकि अमीरजादों की संतानें भविष्य में तगड़ी से तगड़ी कमाई करके लोगों को लूटने में पूर्णतया सक्षम हो सकें। सरकारी स्कूल बने, ताकि प्राइवेट स्कूलों के हित में उन्हें बंद किया जा सके। मंदिर पर मंदिर बनाए जा सकें। ढोंगी बाबाओं, कथावाचकों के अच्छे दिन आ सकें।लोग उनके चरण रज लेते हुए बड़ी संख्या में मरने की सुविधा पा सकें।

2014 से पहले वाकई कुछ नहीं था। केवल नान-बायोलॉजिकल जी थे और गायें थीं, मगर तब वे दूध देने के काम आती थीं। 2014 आया, तो पता चला गायों की हत्या हो रही है, तो गोरक्षा शुरू हुई। गोरक्षा आरंभ हुई, तो नेचुरली जगह-जगह हत्यारे पैदा हुए। फिर मुसलमान, जो तब तक अप्रकट से थे, प्रकट हुए। वे गोहत्या करने लगे,लव जिहाद करने लगे। आबादी बढ़ाकर हिंदुओं को 'अल्पमत ' में लाने लगे। उन्होंने मस्जिदें बनवाईं, ताकि उनकी मीनार पर ये भगवा फहरा सकें। मुसलमानों से ये जयश्री राम बुलवा सकें। दंगे और हत्याकांड प्रायोजित करवा सकें, धर्म-विशेष के लोगों को अपमानित करने, उन्हें हलाक करने के नित नये बहाने ढूंढ सकें। भारत को हिन्दू राष्ट्र बना सकें। हिंदू वोट बैंक पालिटिक्स कर सकें। नफरत का बाजार गरम और गरम कर सके। घृणा का शेयर बाजार ऊपर और ऊपर उठा सकें। इस तरह दुनिया में भारत का नाम रोशन हो सके।जिनको डंके पे डंका बजाने का शौक है, वे उसे लगातार बजा सकें। नाली के पानी से गैस बनने लगें और उस पर चाय बनाकर खुद पीने लगें। आत्महत्या की दर में भारत विश्व रिकॉर्ड बना सकें।

इस तरह विकास ही विकास होने लगा, पेड़ ही पेड़ कटने लगे। नोट बंदी, जीएसटी तथा कोविड के हर साल नई नौकरियां पैदा होने के बजाय कभी सोलह लाख, कभी बीस लाख जाने लगीं। नया भारत बनने लगा। आई आई टी से निकले सूरमा इंजीनियर भी बेरोजगारी होने लगे।लोग जायज-नाजायज़ पैसा कमा कर विदेशों की नागरिकता लेने लगे। चुनावी चंदे के लिए बांड जारी होने लगे। जो अपराधी थे, वे चंदा देकर दोषमुक्त होने लगे।सांसद और विधायक दिन रात खरीदे जाने लगे।

और इस तरह भारत आगे ही आगे बढ़ता गया। गड्ढे की परवाह न करते हुए गिरता ही गिरता गया। और कुछ-कुछ संभलने लगा। गिराने वाले इस दृश्य को देखकर हताशा के गर्त में गिरने लगे।

2. हत्यारे अब हत्यारे जैसे नहीं लगते!

पहले दबंगों, हत्यारों, शोषकों की बात करते हुए, उनकी एक खास छवि मन में बनती थी। उनके चेहरे, चाल, व्यवहार से वह प्रकट होती थी। यह छवि कुछ वास्तविक होती थी, कुछ फिल्मों, उपन्यासों से निर्मित भी।

आजकल के हत्यारे,शोषक आदि सब बहुत चतुर-चालाक हो गए हैं। अकसर हत्यारे अब हत्यारे जैसे नहीं लगते, किसी भी सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक से अधिक सभ्य और सुसंस्कृत लगते हैं। उनका यह दांव हमेशा उनके पक्ष में काम करता है। हर तरह का गुनाह करके वे अपनी इस छवि और प्रभाव के बल पर बच जाते हैं। पकड़े भी जाते हैं, तो कानून और न्याय का तंत्र उनके प्रति बड़ा 'मानवीय व्यवहार' करता है। गिरफ्तार भी हो जाते हैं, तो वे वहां भी ऐश करते हैं, जबकि निरपराध और इस तंत्र के विरुद्ध खड़े होनेवाले कठोर से कठोर सजा पाते हैं।

समय के साथ वे इतने ताकतवर,इतने सर्वव्यापी होते चले जाते हैं कि उनका कोई संविधान,कोई कानून कुछ नहीं बिगाड़ पाता, क्योंकि वे ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कानून के निर्माता, निर्देशक बन चुके होते हैं। उनके विरुद्ध बोलना या लिखना इतना खतरनाक हो चुका होता है कि बोलने वाले की जान भी जा सकती है।

वे ईश्वर से लेकर संविधान तक की कसम खा सकते हैं।वे 'भये प्रकट कृपाला दीन दयाला, अडानी हितकारी' हैं। वे अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए किसी भी धर्मस्थल पर सिर नवाने जा सकते हैं। कई बार तो लगता है, धर्मगुरु ही नहीं, ईश्वर भी उनसे डरता है और वे जब आते हैं तो ईश्वर भी उनके सम्मान में खड़ा हो जाता है और तब तक नहीं बैठता, जब तक वे उससे नहीं कहते कि आप बैठ जाइए!