इस इलाके में नऐ आए हो साहेब? वरना यहां शेरखान को कौन नहीं जानता...

फिल्म जंजीर में एक यादगार सीन है जहां इंस्पेक्टर विजय बने अमिताभ बच्चन थाने में शेरखान यानी प्राण आकर कहता है 'इलाके में नऐ आए हो साहेब, वरना यहां शेरखान को कौन नहीं जानता' और इसके बाद इंस्पेक्टर विजय सामने रखी कुर्सी पर लात मारते हुए कहता है, 'जब तक बैठने को न कहा जाए खड़े रहो,

इस इलाके में नऐ आए हो साहेब? वरना यहां शेरखान को कौन नहीं जानता...

फिल्म जंजीर में एक यादगार सीन है जहां इंस्पेक्टर विजय बने अमिताभ बच्चन थाने में शेरखान यानी प्राण आकर कहता है 'इलाके में नऐ आए हो साहेब, वरना यहां शेरखान को कौन नहीं जानता' और इसके बाद इंस्पेक्टर विजय सामने रखी कुर्सी पर लात मारते हुए कहता है, 'जब तक बैठने को न कहा जाए खड़े रहो, ये पुलिस स्टेशन है. तुम्हारे बाप का घर नहीं.' कहा जाता है कि अमिताभ बच्चन की हिम्मत नहीं हो रही थी इस सीन को करने की. क्योंकी सामने प्राण थे. वो प्राण जिन्होंने प्रकाश मेहरा से अमिताभ की सिफारिश करते हुए कहा था कि 'बॉम्बे टु गोवा' में एक नया लड़का है, वो इस रोल के लिए सही रहेगा.
  फिल्मों में प्राण का जिक्र हमेशा बाकी सितारों से अलग एंड प्राण करके आता था. आता भी क्यों न, जो आदमी मिर्जा गालिब के मोहल्ले बल्लीमारान में पैदा हुआ हो. लाहौर की हीरामंडी में जिसके कपड़े पहनने के सलीके के चर्चे होते हों और जिसे खुद सआदत हसन मंटो हिंदी सिनेमा में लेकर आए हों वो ऐसा वैसा कैसे हो सकता है.
  वो स्ट्रगल के दौर में ताज होटल में रहते थे
   प्राण साहब फिल्मों में आने से पहले लाहौर में फोटोग्राफी का बिजनेस देखते थे. उस दौर में 200-300 रुपए महीने की अफरात वाली आमदनी थी, जिससे सारे शाही शौक आराम से पूरे हो जाते थे. पहली फिल्म 'यमला जट' मिली विलेन के किरदार के लिए 50 रुपए महीने की तनख्वाह तय हुई. देखते ही देखते लाहौर फिल्म इंडस्ट्री की 22 फिल्में कर डाली.
   1947 के बंटवारे में प्राण हिंदुस्तान चले आए. गुमान था कि काम तो मिल ही जाएगा. तो पत्नी सहित ताज होटल में आराम से रहते हुए फिल्मों में रोल तलाश रहे थे. समय निकलता जा रहा था और मौका मिल नहीं रहा था. खर्च कम करने के लिए ताज के महंगे कमरे से निकल कर सस्ते गेस्ट हाउस में आ गए.
   इस बीच सआदत हसन मंटो से दोस्ती गहराई. मंटो की ही सिफारिश पर उन्हें फिल्म 'ज़िद्दी' में काम मिला. ये फिल्म देवानंद के करियर की पहली हिट तो हुई ही, इस फिल्म ने ही इंडस्ट्री को प्राण जैसा विलेन और किशोर कुमार जैसा गायक दिया.
किताब 'मीना बाजार' में प्राण का जिक्र करते हुए मंटो लिखा है कि एक बार प्राण ने उन्हें ताश के खेल में बुरी तरह हराया और 75 रुपए जीते. ये सारे पैसे खेल में प्राण की पार्टनर ऐक्ट्रेस केके यानी कुलदीप के पास थे. प्राण ने केके से कहा कि उन्होंने मंटो को खेल में हाथ की सफाई से हराया है इसलिए उनके पैसे वापस कर दिए जाएं. इसके बाद प्राण चले गए. मगर केके ने मंटो को वो पैसे वापस नहीं किए, ऊपर से 22 रुपए का एक महंगा सेंट मंटो से खरीदवा लिया.
फिल्म 'गुड्डी' में एक सीन है जहां प्राण धर्मेंद्र को एक घड़ी गिफ्ट करते हैं, हिरोइन जया भादुड़ी कहती हैं, ये मत लेना इसके पीछे इस आदमी का कोई गलत मकसद होगा. प्राण के साथ हमेशा यही रहा. पर्दे पर निभाए गए उनके खलनायकी के किरदारों ने लोगों पर गहरा असर डाला. आज भी आपको प्राण नाम का आदमी शायद ही मिले. 2004 में एक इंटरव्यू में प्राण ने खुद ही बताया कि उन्हें जिंदगी में किसी फीमेल फैन का खत नहीं मिला, और उन्हें इस बात की बड़ी खुशी थी. उनके मुताबिक बतौर खलनायक वो ज्यादा से ज्यादा बदनाम हों.
प्राण और हिंदी सिनेमा के बाकी विलेन्स में दो बुनियादी फर्क थे. एक तो प्राण का स्टाइल लाजवाब था. महंगे बंदगले के कोट और चमचमाते जूतों में हाथ में हंटर लिए प्राण हों, थ्री पीस सूट में सिगार का धुंआ उड़ाते प्राण हों या छुरेबाज माइकल बने प्राण हों, वो हमेशा एक अलग स्टाइल स्टेटमेंट के साथ पर्दे पर दिखे. हर किरदार का मेकअप लाजवाब होता था.
दूसरी तरफ प्राण के साथ ऐसा नहीं था कि वो हीरो बनने इंडस्ट्री में आए हों और उन्हें विलेन बना दिया गया हो. बकौल प्राण उस दौर में हीरो बनने का मतलब होता था कि हिरोइन के साथ पेड़ के नीचे बैठकर ‘मैं वन की चिड़िया बनकर, वन-वन डोलूं रे’. और जाहिर है कि ये प्राण के मिजाज को सूट नहीं करता.
ऐसा नहीं था कि प्राण ने कभी पर्दे पर गाने नहीं गाए. शेरखान बनकर 'यारी है ईमान', मलंग के तौर पर 'कसमे वादे प्यार वफा' जैसे उनके गाने सुपरहिट रहे. खुद उनके मुताबिक उनके गाए सारे गाने कहानी की ज़रूरत पर फिल्मों में थे और इसीलिए सुपरहिट हुए.
भले ही प्राण कुमार सिकंद को हिंदी सिनेमा का सबसे बड़ा विलेन माना जाता हो. हर दौर में उन्होंने बढ़िया कैरेक्टर रोल भी किए. उपकार, जंजीर, डॉन, कर्ज और अमर अकबर ऐथोनी जैसी तमाम फिल्मों में उनके यादगार किरदार हैं. फिर भी उनको मिला विलेन का तमगा हमेशा ही उनके सारे ‘अच्छे कामों’ हावी रहा.
एक इंटरव्यू में उनसे पूछा गया था कि अगर आज के दौर की किसी हिरोइन से उन्हें बतौर खलनायक पर्दे पर छेड़छाड़ करनी हो तो किससे करेंगे. तब 84 साल के प्राण ने जवाब दिया था कि सारी कि सारी, बस सुंदर होनी चाहिए.वैसे प्राण की ये बेबाकी सिर्फ बातों भर की नहीं थी. 1973 में फिल्म 'बेईमान' के लिए मिला बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवॉर्ड उन्होंने लौटा दिया था. उस साल का बेस्ट म्यूजिक का अवॉर्ड बेईमान के लिए शंकर जयकिशन को दिया गया था, जबकि प्राण का कहना था कि उस साल गुलाम हैदर की पाकीज़ा के अलावा कोई और फिल्म बेस्ट म्यूजिक का अवॉर्ड डिजर्व नहीं करती थी. आज दशकों बाद हम बेईमान और पाकीजा के संगीत की टिकी हुई लोकप्रियता से समझ सकते हैं कि प्राण अपनी जगह कितने सही थे.
प्राण के साथ एक बात हमेशा रही. अपनी फिल्में खुद कभी न देखने वाले इस फिल्मी खलनायक ने एक समय के बाद फिल्मी महफिलों, पार्टियों और अवॉर्ड फंक्शन्स से दूर कर लिया था. उनकी तमाम प्रशंसाओं के बाद भी उनके काम को सराहने में इंडस्ट्री ने बहुत देर की. 2013 में उन्हें जब दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से नवाजा गया, वो पूरी तरह से अशक्त हो चुके थे. हालांकि इससे कई साल पहले उन्होंने अपने बारे में खुद एक टिप्पणि की थी. 'अगर लंदन में रहता होता, सर प्राण कहला रहा होता