'पाकीज़ा' फ़िल्म नहीं, इश्क़ की दास्तान नहीं बल्कि ख़ुद इश्क़ है

"हमारा ये बाज़ार एक क़ब्रिस्तान है। ऐसी औरतों का जिनकी रुहें मर जाती हैं और जिस्म ज़िंदा रहते हैं। ये हमारे बालाख़ाने, ये कोठे, हमारे मक़बरे हैं। जिनमें हम मुर्दा औरतों के ज़िंदा जनाज़े सजाकर रख दिये जाते हैं। हमारी क़बरें पाटी नहीं जातीं, खुली छोड़ दी जाती हैं ताकि..."

'पाकीज़ा' फ़िल्म नहीं, इश्क़ की दास्तान नहीं बल्कि ख़ुद इश्क़ है

पाकीज़ा

"हमारा ये बाज़ार एक क़ब्रिस्तान है। ऐसी औरतों का जिनकी रुहें मर जाती हैं और जिस्म ज़िंदा रहते हैं। ये हमारे बालाख़ाने, ये कोठे, हमारे मक़बरे हैं। जिनमें हम मुर्दा औरतों के ज़िंदा जनाज़े सजाकर रख दिये जाते हैं। हमारी क़बरें पाटी नहीं जातीं, खुली छोड़ दी जाती हैं ताकि..."
(चुप हो जा) 

  • "मैं ऐसी ही खुली हुई क़ब्र की एक बेसब्र लाश हूँ जिसे बार-बार ज़िंदगी बर्ग़ला कर भगा ले जाती है।"
  • "लेकिन अब मैं अपनी इस आवारगी और ज़िंदगी की इस धोखेबाज़ी से बेज़ार हो गई हूँ, थक गई हूँ।"

"मैं डर गई। उसकी ज़मीन न जाने कैसी थी? जहाँ-जहाँ मैं पाँव रखती थी, वो वहीं-वहीं से धँस जाती थी। देख न बिब्बन! वो पतंग कितनी मिलती-जुलती है मुझसे! मेरी ही तरह कटी हुई!! ना मुराद... कमबख़्त!" कमाल अमरोही के लिखे इस संवाद से भले ही आप की रूह थर्रा नहीं गई हो लेकिन इतना तो आप जान ही चुके हैं कि 'पाकीज़ा' तवायफ़ों की ज़िंदगी पर बनी हुई फिल्म है। 

'पाकीज़ा' फ़िल्म नहीं, इश्क़ की दास्तान नहीं बल्कि ख़ुद इश्क़ है। जो सिर्फ़ पैसे और हुनर से नहीं बल्कि इबादत और मुहब्बत से बनी है। उसमें ख़ून पसीने के साथ-साथ पूजा और प्रार्थना भी शामिल रही है। संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद के इंतक़ाल के बाद जब कुछ लोगों ने फिल्म में नए संगीतकार शंकर-जयकिशन को लेने की बात कही तब कमाल अमरोही ने कहा - "नहीं ये नामुमकिन है। ऐसा करना जन्नत जा चुके एक फ़नकार के साथ ग़द्दारी होगी।" 

Meena Kumari Rajkumar film Pakeezah could not be released for 14 years  husband wife fight was reason | 14 साल तक फिल्म Pakeezah नहीं हो पाई थी  रिलीज़, वजह थी पति पत्नी का झगड़ा

"मोआफ़ किजीयेगा। इत्तेफ़ाक़न आप के कंपार्टमेंट में चला आया था। आप के पांव देखे। बहुत हसीन हैं। इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा। मैले हो जाएंगे। 
आप का एक हमसफ़र!"  ट्रेन की सीटी और इस डायलॉग के साथ ये इश्क़ की दास्तान शुरू होती है जो पूरी फिल्म पर मुहीत और तारी रहती है। 

सैकड़ों परेशानियों और तब्दीलियों से गुज़र कर 'पाकीज़ा' मुकम्मल होकर जब एडीटर डी एन पायी के पास पहुंची तो उन्होंने फिल्म के आख़िर का वो सीन काट दिया जिसमें 'साहिबजान' निकाह के बाद डोली में विदा हो रही है और बग़ल की छत पर खड़ी एक दोशीज़ा हसरत भरी निगाहों से साहिबजान को विदा होकर जाते देख रही है। एक साथ बेटी की डोली और बाप का जनाज़ा उठाने का जोख़िम भरा काम कमाल अमरोही ने इस सीन में कर दिखाया। 

जब ये बात कमाल अमरोही को पता चली तो उन्होंने डी एन पायी से उस सीन को जोड़ने के लिए कहा। एडीटर ने कहा - "कमाल साहब इस सीन का तो फिल्म से कोई त्अल्लुक़ ही नहीं है। फिर ग़ैर ज़रूरी लंबाई बढ़ाने से क्या फ़ायदा!" 

कमाल साहब ने कहा - "इस कहानी का रचयिता मैं हूँ और मैं जानता हूं कि वही लड़की असल में 'पाकीज़ा' है, जो छत से एक तवायफ़ को शादी के जोड़े में विदा होते देखकर, अपने दिल में उसी तरह के अरमान संजोती है। क्योंकि वह लड़की भी उस बदनाम गली की एक नई नवेली तवायफ़ होती है।" 

डी एन पायी ने कहा - मुझे तो नहीं लगता कि कोई दर्शक ये समझ पाएगा कि वो लड़की ही असल में 'पाकीज़ा' है। 

कमाल अमरोही ने कहा - एक शख़्श भी अगर ये बात समझ पाया तो मेरी मेहनत कामयाब हो जाएगी। 

आख़िर एक दिन कमाल अमरोही के नाम एक ख़त आया। जिसमें लिखने वाले ने फिल्म के आख़िरी सीन में छत पे खड़ी उस लड़की की तस्वीर मांगी थी। साथ में लिखा था - "कमाल साहब! आप की असली 'पाकीज़ा'  वही लड़की है।" 

कमाल साहब वो ख़त लेकर डी एन पायी के पास गए और बोले - "देखिए! फिल्म और कहानी की समझ रखने वाला कम से कम एक दर्शक तो मिल ही गया।" उसके बाद कमाल साहब ने उस शख़्स के लिए पुरे मुल्क में 'पाकीज़ा' देखने का फ्री पास जारी कर दिया।  तो ये आलम था मरहूम कमाल अमरोही साहब के परफेक्शन का। ठीक उसी तरह का वाक़्या मीना कुमारी वाली मेरी पिछली तहरीर के साथ भी रुनुमा हुआ है। मैंने  एक लाइन में मीना कुमारी का दीवान छपवाने की ज़िम्‍मेदारी गुलज़ार साहब को देने की बात कही है। 

वह जुमला लिखते वक़्त मेरे ज़ेहन में यह बात थी कि पता नहीं कितने लोग इस 'बिटवीन द लाईन' बात को समझेंगे और जो समझेंगे भी वो पता नहीं इज़हार भी करेंगे या नहीं! लेकिन एक निहायत ज़हीन व पुर्वक़ार शख़्सियत, मुफ़क्किर व शायर जनाब Misbah Siddiki साहब ने ना सिर्फ़ उस बिटवीन द लाईन बात को समझा है बल्कि खुलकर कमेंट बॉक्स में उस बात का इज़हार भी किया है।

बहरहाल 'पाकीज़ा' मेरे दिल के बेहद क़रीब है, मेकिंग और संगीत के लिहाज़ से भी और कमाल अमरोही - मीना कुमारी की बाकमाल मुहब्बत की वजह से भी। हालांकि 'पाकीज़ा' मेरी पैदाइश से पहले की फ़िल्म है लेकिन जहां-चाह वहां-राह वाली बात है। होश संभालने के बाद पाकीज़ा के गाने मेरी समाअत की निश्वनुमा करने लगे थे। फिल्म पाकीज़ा, मीना कुमारी और कमाल अमरोही के लिए सिर्फ़ एक मज़मून काफ़ी नहीं है। एक और वाक़्या यहां तहरीर कर रहा हूं। 

मध्य प्रदेश के शिवपुरी में पाकीज़ा की शूटिंग से कमाल अमरोही और मीना कुमारी रात में कार से लौट रहे थे। रास्ते में पेट्रोल ख़त्म हो गई। अगल-बग़ल में कोई बस्ती नहीं थी। मजबूरन रात उसी बियाबान में, उसी गाड़ी में बसर करने की नौबत आ गई। तभी अचानक दस-बारह लोग जंगल से नमूदार हुए और कार को घेर लिया।

दरअसल वो सभी चंबल के बाग़ी थे। उन्होंने जब गाड़ी के अंदर मीना कुमारी को देखा तो हैरतज़दा रह गए। उन्होंने अपने सरदार को बताया कि गाड़ी में मीना कुमारी हैं। फिर सरदार ने इज़्ज़त के साथ उनके रहने सहने का इंतज़ाम किया। गाड़ी में पेट्रोल डलवाया और सुबह मीना कुमारी को रुख़सत करते वक़्त एक ख़ंजर पेश करते हुए कहा - "मीना जी! मेरे हाथ पर इस ख़ंजर से आप अपना नाम लिख दें।" 

मीना कुमारी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि ख़ंजर से अपना नाम लिखकर उस बाग़ी को लहूलुहान कर दें। लेकिन जब सरदार ने ज़िद किया तो कमाल अमरोही ने मीना कुमारी को समझाया - मीना! इस बात को समझने की कोशिश करो। तुम्हारी लोकप्रियता चंबल के बाग़ियों तक में है। आज तुम न होती तो पता नहीं क्या होता! ये  सरदार भी तुम्हारा चाहने वाला है। बग़ैर आटोग्राफ दिए जान छूटने वाली नहीं है। आख़िरकार मीना कुमारी को ख़ंजर से अपना नाम उस बाग़ी के हाथ पर लिखना पड़ा। बंबई पहुंचने के बाद उन्हें पता चला कि वो शख़्स चंबल का मशहूर बाग़ी माधो सिंह था।

पाकीज़ा बनाने का ख़याल कमाल अमरोही के दिल में 1955 में आया। उनका ख़्वाब था कि जिस तरह शहंशाह शाहजहां ने अपनी मुहब्बत की निशानी के रुप में ताजमहल बनवाया है उसी तरह मैं भी अपनी मुहब्बत की निशानी एक ऐसे शाहकार के रूप में छोड़ जाऊं जो रहती दुनिया तक क़ायम रहे। 1958 में पाकीज़ा की शूटिंग शुरू हुई तब फिल्म के हीरो थे अशोक कुमार। फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट में बन रही थी। तभी 1960 के आसपास भारत में रंगीन फिल्मों और सिनेमास्कोप लेंस का चलन प्रारंभ हो गया।

कमाल अमरोही ने फिर से इस फिल्म को कलर वर्जन और सिनेमास्कोप लेंस के साथ बनाने का फ़ैसला किया। इस बीच मीना कुमारी और कमाल अमरोही की मुहब्बत अना के टकराव और दिलजलों की नज़रे बद का शिकार हो गई। दोनों अलग-अलग रहने लगे। फिल्म ब्रेक हो गई। कमाल अमरोही का दिल डूब गया। सैकड़ों लोगों का मुस्तक़बिल ख़तरे में पड़ गया।

फिर संगीतकार ख़ैय्याम और उनकी बीवी जगजीत कौर और अभिनेता सुनील दत्त और उनकी बीवी नर्गिस के प्रयासों से मीना कुमारी फिल्म को पुरा करने के लिए तैयार हो गईं। उन्होंने ख़य्याम साहब से कहा - "जिन लोगों ने मेरा घर बर्बाद किया है उनका भी घर कभी बसेगा नहीं।" 10 साल बाद फिर से शूटिंग शुरू हुई। हालांकि तबतक शराबनोशी के चलते उन्हें लीवर सिरोसिस की बीमारी पकड़ चुकी थी। उधर संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद का इंतक़ाल हो चुका था और अशोक कुमार बुढ़े हो चले थे।

मीना कुमारी ने अपनी बोलती आंखों और लरज़ते संवाद से तवायफ़ 'नर्गिस' और उसकी बेटी 'साहिबजान' के किरदार को अमर बना डाला। कमाल अमरोही ने अशोक कुमार के जगह पर राजकुमार को हीरो के रूप में साइन किया। बिजनेस मैन से बदलकर उनके किरदार को फॉरेस्ट आफिसर बनाया गया और उनके चाचा और साहिबजान के वालिद शहाबुद्दीन का रोल अशोक कुमार ने अदा किया। संगीत का बाक़ी काम ग़ुलाम मोहम्मद के उस्ताद नौशाद साहब के हवाले किया और मीना कुमारी की गिरती सेहत का ख्याल रखते हुए डांस सीन के लिए डुप्लीकेट के रूप में पद्मा खन्ना को लिया।

पाकिज़ा के सेट पर दुबारा लौटने के बाद मीना कुमारी ने पहले सीन में जो संवाद अदा किया ...

"बहुत दिनों से मुझे ऐसा कुछ लगता है कि मैं बदलती जा रही हूँ। जैसे मैं किसी अंजाने सफ़र में हूँ। कहीं जा रही हूँ और सबकुछ छूटा जा रहा है। 'साहिबजान' भी मुझसे छूटी जा रही है और मैं 'साहिबजान' से दूर होती जा रही हूँ।"

इस सीन के साथ बैकग्राउंड में मीर का ये शेर बज रहा है

  • इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है 
  • कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है 

बहरहाल सैकड़ों परेशानियों से गुज़रते हुए मीना कुमारी ने 'पाकीज़ा' मुकम्मल कर अपना वादा निभाया। कुल 14 से 15 बरस लगे इस फिल्म को मुकम्मल होने में। फिल्म देखते हुए मीना कुमारी ने जगजीत कौर से कहा - "मुझे मालूम है कि कमाल मुझसे कितनी मुहब्बत करते हैं।" 

फरवरी 1972 में फिल्म रिलीज़ हुई और मार्च 1972 में महजबीं उर्फ़ मीना कुमारी की रूह जिस्म से परवाज़ कर गई।

  • हर एक मोड़ पे बस दो ही नाम मिलते हैं
  • 'मौत' कह लो, जो 'मुहब्बत' नहीं कहने पाओ

आलेख : Abdul Gaffar