नर्सिंग कॉलेज की छात्रा ने फांसी लगाकर की खुदकुशी, मचा हड़कंप, कारण अज्ञात, परिवार में पसरा मातम, जानिए सुसाइड से पहले के संकेत और उपाय

Nursing college student committed suicide by hanging herself, created a stir, reason unknown, family mourned, know the signs and remedies before suicide

नर्सिंग कॉलेज की छात्रा ने फांसी लगाकर की खुदकुशी, मचा हड़कंप, कारण अज्ञात, परिवार में पसरा मातम, जानिए सुसाइड से पहले के संकेत और उपाय

अंबिकापुर : अंबिकापुर जिले से खुदकुशी का मामला सामने आ रहा है. यहां नर्सिंग कॉलेज की छात्रा ने फांसी लगाकर अपनी जान दे दी है. इस घटना से परिवार में शोक की लहर है. घटना की खबर मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंचकर जांच में जुटी है. यह घटना कोतवाली थाना क्षेत्र के केदारपुर की है.
जानकारी के मुताबिक खुदकुशी करने वाली छात्रा ग्राम रेवापुर के आश्रित ग्राम लवाईडीह की बताई जा रही है. मृतका अंबिकापुर के केदारपुर मोहल्ले में किराए के मकान में रहकर पढ़ाई करती थी. फिलहाल फांसी लगाने की वजह का पता नहीं चल पाया है. पुलिस मामले की जांच में जुटी है.
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इंडियन साइकियाट्रिक सोसायटी की पत्रिका इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री में एक रिपोर्ट के लिए मेडिकल कॉलेज के स्टूडेंट्स का सर्वे किया गया. फरवरी और मार्च 2022 के दौरान की गई स्टडी में 787 छात्र शामिल हुए जिनकी औसत उम्र 21.08 वर्ष थी. इनमें से 293 यानि 37.2% छात्रों ने कहा कि उनके मन में खुदकुशी के विचार आते हैं. 86 छात्रों यानी 10.9% ने कहा कि वे खुदकुशी करने की सोच रहे थे. 26 छात्रों यानी 3.3% ने बताया कि वे पहले कभी न कभी खुदकुशी की कोशिश कर चुके थे। प्रमुख वजह में ठीक से न सोना, परिवार में साइकियाट्रिक बीमारी का इतिहास, बुलिंग, अवसाद और ज्यादा तनाव शामिल हैं.
10 साल पहले की तुलना में अब काफी ज्यादा रिपोर्टिंग होने लगी है. अक्सर बच्चे कोई जहरीला पदार्थ खा लेते हैं. उन्हें लगता है कि इसे खाने से उनकी जान चली जाएगी. लेकिन ज्यादातर मामलों में बच्चे का सिर्फ पेट खराब होता है. पहले मां-बाप घर पर ही बच्चे का इलाज करवाते थे. अगर बच्चे को अस्पताल लेकर गए तो डॉक्टर से कहते थे कि नींद में गलती से जहर पी लिया. वे बस इतना चाहते थे कि पुलिस में मामला दर्ज न हो.” मां-बाप को लगता है कि अगर यह बात सबको पता चलेगी तो लोग उनके परवरिश के तरीके पर सवाल उठाएंगे. अब हालत में काफी बदलाव आया है. क्योंकि माता-पिता को लगता है कि मदद के रास्ते उपलब्ध हैं.
जब खुदकुशी के मामले ज्यादा सामने आते हैं तो पहले से कई समस्याओं से जूझ रहे लोगों में सुसाइड के प्रति एक तरह का ट्रिगर पैदा होता है. ऐसा खास तौर से छात्रों और उन लोगों में होता है जो आसानी से किसी बात में आ जाते हैं. उन्हें लगता है कि समस्याओं से निजात पाने का यही सबसे अच्छा तरीका है.
सुसाइड की रिपोर्टिंग बहुत संवेदनशील तरीके से की जानी चाहिए. क्योंकि मीडिया में की गई रिपोर्टिंग दूसरों को भी प्रभावित कर सकती है. कई बार तो डॉक्टरों के किसी नतीजे तक पहुंचने से पहले ही मीडिया किसी घटना को सुसाइड बता देता है.” डॉ. ओम प्रकाश कहते हैं, “सुसाइड बहुत ही जटिल घटना होती है, इसलिए इनकी रिपोर्टिंग करते समय संजीदगी बरतनी चाहिए.”
दिल्ली के इहबास अस्पताल में मनोचिकित्सा विभाग के प्रोफेसर एवं मेडिकल उप-अधीक्षक डॉ. ओम प्रकाश के अनुसार, “कानून में बदलाव (मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017 में खुदकुशी को अपराध की श्रेणी से हटाया गया) के बाद लोगों में जागरुकता आई है. फिर भी हमारे पास उन्हीं मामलों के रिकॉर्ड हैं जो अस्पतालों में आते हैं. उम्मीद है कि आधार और डिजिटाइजेशन से डाटा में और सुधार आएगा।”
दिल्ली स्थित काउंसलिंग संस्था सुमैत्री की डायरेक्टर नलिनी भी जागरुकता की बात मानती हैं. वे कहती हैं, “25 साल पहले जब मैं नई-नई वॉलंटियर बनी थी. तब किसी को साइकियाट्रिस्ट या काउंसलर के पास भेजने में बहुत मुश्किल आती थी. अगर सीधे किसी से साइकियाट्रिस्ट के पास जाने के लिए कहती तो उसका सवाल होता था कि क्या मैं पागल हूं. 10 साल पहले तक यह हालत थी. लेकिन अब लोग हमारे पास आने से पहले साइकियाट्रिस्ट और थेरेपिस्ट के पास जा रहे होते हैं. कई बार बच्चे मां-बाप को बताए बिना खुद ऑनलाइन काउंसलर से संपर्क कर लेते हैं। इस लिहाज से देखें तो जागरूकता काफी बढ़ी है जो अच्छी बात है.”
सुसाइड की कोई एक वजह नहीं होती है. कई वजह एक साथ काम कर रहे होती है. एक समय ऐसा आता है जब कई फैक्टर एक साथ हावी हो जाते हैं. तब व्यक्ति अपने आप को खत्म करने की कोशिश करता है. NIMHANS में क्लिनिकल साइकोफार्मेकोलॉजी एवं न्यूरोटॉक्सिकोलॉजी विभाग में सीनियर प्रोफेसर तथा चार दशक से अधिक का अनुभव रखने वाले डॉ. चित्तरंजन अंद्रादे डिप्रेशन तथा तनाव (स्ट्रेस) को आत्महत्या का असल वजह मानते हैं. वे कहते हैं कि छात्रों के जल्दी तनाव में आने के दो कारण हैं- एक तो उन पर कई तरह का दबाव होता है. और दूसरा उस दबाव से निपटने के लिए वे परिपक्व नहीं होते.

बढ़ती उम्र के साथ शरीर में होने वाले बदलाव (इसमें यौन परिपक्वता भी शामिल है), ब्वॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड के साथ रिलेशनशिप में समस्या, सहपाठियों से बेहतर प्रदर्शन का दबाव, बुलिंग (साइबरबुलिंग समेत), परीक्षा का दबाव, माता-पिता की उम्मीदें, करियर की चिंता आदि। परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताने और खेल-कूद के बजाय छात्र ऑनलाइन ज्यादा समय बिताते हैं. इसलिए उन्हें साथियों की मदद भी नहीं मिलती है.
संभव है कि छात्र में बायोलॉजिकल कमजोरी हो, परिवार में पहले भी कोई डिप्रेशन का शिकार हुआ हो. मां-बाप के बीच रिश्ते अच्छे न होने पर भी बच्चा खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करता है. इन सबसे कठिन परिस्थितियों से जूझने की बच्चे की क्षमता प्रभावित होती है. ऐसे में संभव है कि वह ड्रग्स लेना शुरू कर दे। उसमें मूड डिसऑर्डर भी दिख सकता है.
आजकल बच्चे इंटरनेट पर काफी समय बिताते हैं। हो सकता है बच्चा वहां किसी से मदद मांगे। सोशल मीडिया पर अक्सर लोग सिर्फ सकारात्मक पक्ष को दिखाते हैं. इससे बच्चे को लगता है कि सब लोग अच्छी जिंदगी बिता रहे हैं, सिर्फ उसके जीवन में समस्या है. इस तरह जहां वह मदद मांगने गया था, वहां वह और अकेला महसूस करने लगता है.

यह भी संभव है कि बच्चा पढ़ाई पर अधिक फोकस करने की सोचे. वह अपने आप से बहुत अधिक उम्मीदें पाल लेता है और दबाव में आ जाता है। हो सकता है कि उसने अपने लिए जो बेंचमार्क तय किया है, वह उसकी क्षमता से बाहर हो. उस बेंचमार्क तक नहीं पहुंचने पर वह खुद को नाकाम मान लेता है। इससे भी उसके मन में हताशा पनप सकती है.
स्कूल-कॉलेज हो या कोचिंग संस्थान, हर जगह हमने रेटिंग बना रखी है. घर में भी दो बच्चों में तुलना की जाती है कि कौन पढ़ाई में अच्छा है और कौन कमजोर. परिवारों ने छात्रों पर बहुत ज्यादा दबाव पैदा किया है. यह दबाव परिवार के अलावा समाज का भी है. बच्चों के मन में यह बिठा दिया जाता है कि इस टारगेट को हासिल करना ही है. लोग यह नहीं समझते कि हर बच्चे की अपनी क्षमता होती है.
मध्यवर्गीय तबके में तनाव ज्यादा है। वह निम्न वर्ग वालों से तुलना नहीं करता और नव धनाढ्य वर्ग में जाने की चाहत रखता है। इसका सारा दबाव बच्चे पर आ जाता है। उसे लगता है कि वह परिवार की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहा है
किसी समस्या का सामना करने की बच्चे की क्षमता पर भी गौर करना जरुरी है. मीडिया में रिपोर्ट करते वक्त लिख दिया जाता है कि टीचर के डांटने या किसी के कुछ कहने पर बच्चे ने खुदकुशी कर ली. लेकिन टीचर ने तो और बच्चों को भी डांटा, तो आत्महत्या सिर्फ एक ने क्यों की? इसका मतलब है कि टीचर का डांटना समस्या नहीं थी. बच्चा वह डांट सहन नहीं कर सका. बच्चों में झुंझलाहट, बेचैनी, तनाव, डिप्रेशन जैसी बातें एक साथ चल रही होती है. इस जटिल प्रक्रिया को न समझ कर हम किसी एक कारण पर चले जाते हैं.
आत्महत्या का कभी कोई एक कारण नहीं होता, कई कारण मिलकर व्यक्ति को इस अंजाम तक पहुंचाते हैं। ऐसा नहीं होता कि कोई छात्र किसी एक परीक्षा में फेल हो जाए या किसी ने उसका एक बार मजाक बना दिया तो वह आत्महत्या कर लेगा. उसके पीछे कई कारण काम कर रहे होते हैं। यह देखना जरूरी है कि किसी खास वक्त पर उनके मन की स्थिति कैसी है, उनका सपोर्ट सिस्टम कैसा है.
युवा अपनी परेशानियों को अपने भीतर ही दबा कर रखते हैं. किसी से जल्दी साझा नहीं करते. उन्हें लगता है कि लोग उनका मजाक उड़ाएंगे, उन्हें साइको कहकर बुलाएंगे. जागरुकता बढ़ने से बड़े शहरों में तो बच्चे अब धीरे-धीरे खुलने लगे हैं, लेकिन टियर 2-टियर 3 शहरों में अब भी वे झिझकते हैं.
किसी से अपनी परेशानी साझा न करने की एक वजह होती है गोपनीयता खोने का डर. बच्चे को लगता है कि दोस्तों से बताया तो वे सब उसे ‘जज’ करेंगे. कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जो वह सबके साथ साझा नहीं कर सकता. जैसे, रिलेशनशिप की समस्या के बारे में वह मां-बाप से बात नहीं करना चाहेगा. किसी से साझा न करने के कारण समस्या धीरे-धीरे इतनी बड़ी हो जाती है कि वह अपने आप को संभाल नहीं पाता है.
हमारे पास छात्रों की जो कॉल आती हैं. उनमें सबसे बड़ी समस्या रिलेशनशिप की होती है. आर्थिक समस्या भी एक कारण है. सेक्सुअल आइडेंटिटी (गे/ लेस्बियन) को लेकर भी अब लोग बात करने लगे हैं. ऐसे लोगों में अकेलापन अधिक होता है क्योंकि वे इस बारे में किसी से बात नहीं कर सकते.
पहले परिवार संयुक्त होते थे और सोशल मीडिया नहीं था। घर में हर इंसान एक दूसरे से बात करता था. अब वह माहौल नहीं है. न्यूक्लियर परिवार में अगर मां-बाप दोनों नौकरी कर रहे हैं तो बच्चा घर पर अकेला होता है. उसे सोशल मीडिया पर ही दूसरे लोग मिलते हैं. सोशल मीडिया पर भी लोग जो दिखाते हैं वास्तव में वैसे होते नहीं. उससे बच्चों में एंजायटी का स्तर बढ़ जाता है.

अचानक मूड बदलना, अपने आप में सिमटकर रहना, दूसरों से बातचीत कम कर देना, जीने की इच्छा खत्म होने की बात करना. दुर्भाग्यवश माता-पिता को अक्सर पता ही नहीं चलता है कि बच्चे के साथ कोई समस्या है. कई बार माता-पिता से पहले सहपाठियों या ऑनलाइन दोस्तों को अवसाद या खुदकुशी के बारे में सोचने का संकेत मिल जाता है.
आमतौर पर बच्चा सीधे मरने की बात नहीं कहता, वह परोक्ष रूप से अपनी बात कहने की कोशिश करता है. जैसे, ‘अगर मैं आप लोगों जिंदगी में नहीं होता तो आपकी जिंदगी बेहतर होती. वह कुछ दिनों तक दोस्तों से न मिले और अचानक उनसे मिलकर ‘गुडबाय’ बोले. दादा-दादी या नाना-नानी से बात नहीं करने वाला बच्चा अचानक उन्हें फोन करके कहे कि अपना ख्याल रखिएगा.
आम धारणा है कि खुदकुशी की बात करने वाले वास्तव में ऐसा नहीं करते, जबकि ऐसा नहीं है। अगर बच्चा सीधे मरने की बात कहता है तो उसका स्पष्ट मतलब है कि वह मदद मांग रहा है। जवाब में हमें यह नहीं कहना चाहिए कि मजाक करना बंद करो.
संकेत मिलने पर क्या करें
माता-पिता को बच्चे के साथ अधिक बातचीत करनी चाहिए, उनके साथ ज्यादा समय बिताना चाहिए, भावनात्मक मदद के साथ बच्चे की काउंसलिंग करानी चाहिए। माता-पिता को यह देखना चाहिए कि बच्चे की उम्मीदें न खत्म हों। उम्मीद ही कुंजी है, इसके बिना जीवन का कोई मतलब नहीं.
कुछ आत्महत्याएं बिल्कुल अप्रत्याशित होती हैं क्योंकि व्यक्ति किसी आवेग में, जैसे संबंधों में अचानक समस्या आने या परीक्षा में खराब नतीजों के कारण ऐसा कदम उठाता है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि माता-पिता अपने बच्चों के साथ तमाम विषयों पर बात करते रहें। इसकी शुरुआत कम उम्र से ही करनी चाहिए.
माता-पिता को घर में ऐसा माहौल रखना पड़ेगा जिससे बच्चा अपनी हर समस्या उनसे साझा कर सके। डांट या आलोचना की डर से कई बार बच्चे मन की बात नहीं कह पाते। मां-बाप को बिना जजमेंटल हुए बच्चे की बात सुननी चाहिए। अक्सर मां-बाप बच्चे की समस्या सुनकर उसे खारिज कर देते हैं और कहते हैं कि हमने तुमसे अधिक संघर्ष किया है, तुम्हारी जिंदगी काफी आसान है। ऐसा करने पर बच्चा धीरे-धीरे आपसे अपनी बात साझा करने से बचेगा.
च्चे को अपनी समस्या का समाधान खुद निकालने का तरीका सिखाना चाहिए। यह सीख उन्हें भविष्य में भी दूसरी समस्याओं से निपटने में मदद करेगी। बच्चों को टेक्नोलॉजी और इंटरनेट से पूरी तरह दूर करने के बजाय उनमें इनके भले और बुरे, दोनों पक्षों को समझने की क्षमता विकसित करनी चाहिए.
आत्महत्या का विचार आना एक इमरजेंसी है। जिस तरह किसी को दिल का दौरा पड़ने पर तत्काल अस्पताल ले जाने की सलाह दी जाती है, उसी तरह कोई बच्चा आत्महत्या करने की बात कहता है तो हमें तत्काल उसे डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए। कोशिश करनी चाहिए कि कुछ दिनों के लिए वह अस्पताल में भर्ती हो। ऐसे बच्चों को सहारे की जरूरत होती है। उसे कोई सुनने वाला चाहिए.